व्यंग्य
गाँधी टोपी का पेटेन्ट
` डा० कलानाथ मिश्र
फोन की घंटी तीन बार बज के बन्द हो चुकी थी। महारानी चिंतित हो रही थीं। ऐसा तो आज तक नहीं हुआ कि मेरे फोन की घंटी सुनकर महामात्य जबाब नहीं दें। महारानी के मन में अनेक प्रकार की शंकाओं ने घर कर लिया। कही बगावत तो नहीं कर दिया महामात्य ने? फिर स्वत: मन ने कहा, 'न... इतनी हिम्मत तो नहीं उनमंे। इसी उधेर बुन में महारानी पुन: फोन लगाई। क्षण ही भर में
सारी शंकाएं निर्मूल सिद्ध हुई। चौथी बार घंटी बजते ही जबाब मिला, हलो!
कौन प्रधान आमात्य बोल रहे हैं ?
जी.....आप कौन ?
महारानी चिढ़ कर बोली, क्या मुझे नहीं पहचाना ?
आपने सही कहा, आजकल मेरा घ्यान हजारे दल पर टिकी है। वे लोग इतने चीख चिल्ला रहे हैं कि दूसरी आवाज ही नहीं पहचान पाता। किन्तु आप कौन ? इस
आपद् काल में आप की आवाज जानी पहचानी, शुकून देनेवाली लग रही है।
अरे प्रधान आमात्यजी ! मै महारानी बोल रहीं हूँ।
सुनते ही प्रधान आमात्य की चेतना एकाएक लौटी, भाव बदल गए, भाषा बदल गई, किन्तु आवाज ही गायब हो गई। घिघियाते हुए बोले, 'जी मैडम!!! मैडम आप ठीक तो हैं न?
मुझे छोड़िए, आपकी आवाज क्यों बैठी है?
खरास कर गला साफ करते हुए महामात्य ने कहा, 'मैडम जब से आपने मुझे प्रधान आमात्य की कुर्सी पर बिठा दिया है तभी से स्वर यंत्र निश्तेज हो गया है। न बोल पाता हूँ और न चुप रहते बनता है। भई गति साँप छुछुंदर केरि..।
ठीक है कोई बात नहीं, वैसे स्वर यंत्र की आपको बहुत आवश्यकता भी नहीं। उसके लिए हमने दूसरे आमात्य पाल रखे हैं। किन्तु यह बताइए कि श्रवण यंत्र ठीक है कि वह भी ....।
जी मैडम! क्या जी...जी लगाए बैठे हैं प्रधान जी! लगता है आपके कान भी खराब हो गए हैं।
जी नहीं मैडम, आपकी आवाज सुन रहा हूँ।
ठीक से सुनाई परती तेा क्या जनता की चिल्ल.... पों... नहीं सुन पाते? क्या तमाशा बनाए रखा है साम्राज्य में। फिर गाँधी टोपी साम्राज्य की जनता की हथियार बनती जा रही है और आप मुँह ताक रहे हैं। लगता है सारे किए-कराए पर पानी फेर दीजिएगा। दस पन्द्रह दिनों के लिए खास काम से साम्राज्य से बाहर क्या निकली अपनी तरफ हवा बदलने कि जनता ने आसमान सर पे उठा लिया। इन्हीं आशंकाओ के कारण सोची रहीं थी कुछ सामान मातृदेश के महल में भी लेजाकर व्यवस्थित कर दँू पर हजारे की गाँधी टोपी की गूँज यहाँ तक धमक गई। मेरे तो कान पक गए।
ये किस तरह से हैण्डल करते हैं आप सिचुएशन? मुझे तो लगता है आप ही इस फक्कर बुड्ढे को गाँधी बनाने पर तुले हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। मैडम की आवाज में रोष देखकर प्रधान आमात्य घबरा गए। किसी तरह सफाई दी, बोले, 'मैडम! मैं तो चुप ही था। जो कुछ किया वो तो आपके विश्वास पात्र सिपहसालारों ने ही किया। मैं तो हमेशा की तरह इस बार भी मुँह नही खोला। इसबार भी वही शिक्षा और गृह आमात्य बोले, वित्त आमात्य ने भी विशेषज्ञ टिप्पणी की थी। मैने सोचा आपके वफादार हैं इसी लिए इशारे पर ही बोलते होंगे।
मैडम का गुस्सा बढ गया, खीझ कर बोली, देखिए प्रधान आमात्य! मैं कुछ नही सुनना चाहती, हालात बिगड़ने नहीं चाहिए, नही ंतो सारे किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
मैडम आप निश्चिंत नहें अब राजकुमार राज्य में आ गए हैं अब सब ठीक हो जएगा।
देखिए प्रधान! राजकुमार को भेजा तो है हमने पर अब मामला भड़क गया है। जो भी कहना कहवाना हो वो सब सिपहसालारों के मुँह से ही कहबाइए। राजकुमार स्वयं कुछ न बोलें। उन्हें इस पचड़े में कतई नहीं फसाइए। अभी उन्हें राज पाठ सम्हालना है। वर्षों से सही अवसर के तलाश में हूँ। परन्तु राज्य में चैन से कुछ हो भी तो नहीं रहा। हमेंशा कुछ न कुछ उत्पात मचा ही रहता है। कभी श्वामी, कभी श्यामदेव, कभी पन्ना, जाने कैसे सिर फिरे लोग हैं न खुद चैन से रहते हैं न साम्राज्य को रहने देते हैं। उपर से ये मीडिया वाले तो खुद को किंग मेकर समझ बैठे हैं। उससे भी आश्चर्य होता है निकम्मी जनता पर। जहाँ थोड़ा से अवसर मिला काम धाम छोड़ लग गए पीछे, हल्ला बोल।
मैडम! आप चिंता न करें सब ठीक हो जाएगा।
मैडम बोलती रहीं, इसीलिए मैं राज्य में सतर्क रहती हूँ। राजकुमार को इस बेपरवाह जनता को भरमाकर मोहने, बहलाने के लिए जाने कितने कष्ट दिए हैं। जाने कहाँ-कहाँ राज्य की गंदी बस्तियों में भटके हैं वो। कई बार उन बस्तियों में रात गुजारनी पड़ी, सरे गले खटिए पर बैठना पड़ा। किन्तु जनता इतनी कृतघ्न है कि सामने में चिकनी चुपड़ी बातें तो करती है, राज्य कोष से लाभ भी उठा लेती है पर समय आने पर भागती है इन सिद्धांत बघारने वालों के पीछे।
महाआमात्य बहुत देर बाद मुँह खोले, हाँ में हाँ मिलाई, जी मैडम।
महारानी का क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ था। बोली, क्या जी...जी...लगा रखे हैं प्रधान आमात्य, कुछ कीजिए। जब भी राजकुमार के राज्याभिषेक की बात गरमाती है कुछ न कुछ अपशकुन होने लगता है। इसीलिए मन अशान्त रहता है। किन्तु एक बात बताईए प्रधान अमात्य, आपके मन में तो कोई खोट नहीं?
प्रधान अमात्य की फिर धिघ्घी बंध गई, ये कैसी बातें कहती हैं महारानी जी ! मैं तो आपके कारण अपना अर्थशास्त्र भी भूल गया, मेरी आवाज गुम हो गई, चाह कर भी मुँह नहीं खोल पाता, आखिर आपका नमक खाया है मैडम, आपने मुझे कुर्सी दी है।`
हाँ तो इस कुर्सी को अपनी जागीर नहीं समझ बैठिए। यह मेरे राजकुमार की अमानत है। सही अवसर आते ही उन्हें सौंप कर निश्चिंत होना चाहती हूँ। जमाना खराब हो गया है। क्या मिटेगा भ्रष्टाचार इस साम्राज्य से। वफादारी नाम की चीज ही नहीं रह गयी। जिसे देखिए राजगद्दी पर नजड़ गड़ाए बैठा है। सब कृतघ्न हैं इनमें थोड़ी भी नैतिकता, कृतज्ञता नहीं रही। मेरी पार्टी के ही चलते साम्राज्य में आजादी मिली, मेरे पार्टी के ही बल पर गाँधी गोरों के विरूद्ध आन्दोलन चला सके। बदले में थोड़ा सा भ्रष्टाचार यदि हो भी गया तो इतना हल्ला मचाना कहाँ का न्याय है। हमारे ही अस्त़्र हमीं पर इस्तेमाल? हमारी पार्टी ने ही सबकेा सत्याग्रह का मार्ग बतलाया और कृतघ्न लोग मुझी पर इसका प्रयोग करें यह कहाँ तक उचित है?
जो बन परे कीजिए आमात्य!वह बुड्ढ़ा जो चाहता है उसे दे दीजिए पर किसी भी तरह परिस्थिति पर काबू कीजिए। अपने गुप्तचरों और सिपहसालारों को लगाए रखिए उनके पीछे।
जी मैडम ! जो आज्ञा!
हाँ अब एक अहम बात गौर से सुनिए। मै अनुभव कर रही हूँ कि इन सारे फसाद का जड़ ये गाँधी टोपी है। जाने गाँधी जी ने इस टोपी में कौन सा मंत़्र फूंक दिया था। खुद तो चले गए पर यह टोपी छोड़ गए। साम्राज्य के लोग जहाँ इस टोपी को देखते हैं कि इसके नोक की तरह तन जाते हैं। जाने कहाँ से हिम्मत आ जाती है उनमें, निडर होकर हमारे सैनिकों के आगे खड़े हो जाते हैं।
मेरे मन में एक विचार आ रहा है। आज कल पेटेंट का जमाना है, क्यों न अपनी पार्टी के हक में इस टोपी का पेटेंट करा लिया जाय। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। और हमारा हक बनता है उसपरं। गाँधी हमारे पार्टी के थे। और ये टोपी उनकी थी, उनके नाम से आज भी जानी जाती है, फिर उसका उपयोग गैर लोग कैसे कर सकते हैं? आप यह भी दलील दे सकते हैं कि टोपी का जैसे-तैसे उपयोग करने से उसका अपमान होता है अत: सार्वजनिक रूप से गाँधी टोपी उपयोग पर तब तक बैन लगा दिया जाय जब तक अपने पक्ष में उसका पेटेन्ट नहीं हो जाता।
महामात्य! राज्य के मेरे वफादार सिपहसालारों से इस विषय में अविलम्ब विमर्श किया जाय। और इस फसाद की जड़ को ही समाप्त करने का प्रयास किया जाय। टोपी को पेटेन्ट कराने का शीघ्र पहल कीजिए और राजकुमार को भी निवेदन कीजिए वेा भी यदा कदा जनता को दिखाने के लिए इस टोपी का उपयोग कर लिया करें।
जी मैडम!
हाँ! एक बात और...। यदि अपने साम्राज्य में इसके पेटेन्ट कराने पर ज्यादे उथल पुथल की सम्भावना हो तेा इसका दूसरा उपाय यह भी है कि अंग्रेज ही क्यों न इस टोपी का पेटेन्ट करा लें। उनका ध्यान शायद अब तक इस ओर नहीं गया है। आखिर गाँधी टोपी पर अंग्रेजों का हम सबसे ज्यादा हक बनता है। इस टोपी के एवज में सबसे बड़ा त्याग तो अंग्रेजों ने ही किया है। इस टोपी के लिए उन्हों ने अपना साम्राज्य भी कुर्बान कर दिया। राज्य छोड़ कर चले गए। दूसरा कि कांग्रेस की स्थापना भी तो उन्हीं के द्वारा की गई थी। गाँधी टोपी पर उनका हक जायज होगा।
जी मैडम!
जो भी हो पर मैं यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती कि ये भगवा वाले इस टोपी का इस्तेमाल अपने हक में करें। राजकुमार के राज्याभिषेक के पहले इस टोपी का पेटेन्ट करा लिया जाय या करवा दिया जाय। सब दिन के लिए इस फसाद की जड़ को खत्म कीजिए प्रधान आमात्य!
जी मैडम!!
1 comment:
bahut achha vyangya hai.maza aa gaya.
Post a Comment