Monday, October 16, 2006

अथ हिन्दी पूजन कथा

दीनदयाल आज अत्यंत प्रसन्न थे। कुछ दिन पूर्व जो जुगाड़ उन्होंने भिड़ाया था, वह सफल हुआ। दीनदयाल के पड़ोसी सुरेश्वर बाबू किसी केन्द्रीय सरकारी संस्था के रिटायर्ड पदाधिकारी थे। दीनदयाल की 'हिन्दी-ऑफीसर` सेवा भाव से संतुष्ट होकर सुरेश्वर बाबू ने तिकड़म भिड़ाया और हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी आयोजित होने वाली वार्षिक हिन्दी पूजनोत्सव के लिए एक विशेष सरकारी संस्था में दीनदयाल जी को मुख्य पुजारी की भूमिका मिल गयी।कल ही संध्याकाल फोन आया। फोन दीनदयाल जी की पत्नी उठाली। पत्नी ने दौड़कर दीनदयाल जी को सूचना दी, ' अजी सुनते हैं...., दीनदयाल जी मानस पाठ कर रहे थे अत: शीघ्र ही पत्नी के टोकने का उत्तर नहीं दे सके। पत्नी इसबार बिना किसी भूमिका के ही बोली - 'कॉरपोरेशन से फोन है...।दीनदयाल जी आनन फानन में मानस पाठ का पटाक्षेप कर भागते हुए फोन के पास आए। पहले धीरे से पत्नी को फटकार लगाई 'अरे श्रीमती ! कॉरपोरेशन नहीं निगम बोला करो 'निगम`, क्या समझेंगे लोग हिन्दी वाले के घर में भी......,पत्नी ने बीच में ही बात काटकर कहा, 'अच्छा समझी किन्तु उन्हों ने जो कहा सो कह दी मैंने।दीनदयाल-वे लोग पदाधिकारी हैं ऐसे ही बोलते हैं, पर तुमतो...,पत्नी ने फिर टोका- 'अच्छा पहले फोन पर बात तो कर लो।दीनदयाल जी ने पूरी शालीनता समेटकर हिन्दीआना अंदाज में कहा, 'हेलो.......ओ.....!आवाज आयी, 'जी ! मैं भारत सरकार के करप्सन कॉरपोरेशन से मेनेजर बोल रहा हूँ।`दीनदयाल जी को एक क्षण के लिए लगा जैसे कोई कह रहा हो 'नमस्कार ...मैं 'क०ब०क०`(के.बी.सी.) से अमिताभ बच्चन बोल रहा हूँ.....।दीनदयाल जी ने भी उसी उत्साह से उत्तर दिया ,'जी हाँ सर...श्रीमान जी बोलिए.....,बोल ही दीजिए...।मैनेजर - आप तो जानते ही हैं कि हमलोगेां के यहाँ आज कल हिन्दी 'फेस्टीवल` चल रहा है।दीनदयाल बीच में ही बोल पड़े, 'हाँ....हाँ ..बड़ी कृपा आपलोगों की जो हिन्दी के लिए इतना करते हैं।`पदा०- न...न...इसमें कृपा करने की क्या बात है, यह तो 'गवर्नमेन्ट` का 'सर्कुलर` है सेा यह तो करना ही है।दीन०-जी हाँ यह तो बहुत ही अच्छी बात है।पदा०- तो 'प्लीज` आपसे 'रिक्वेस्ट` है कि कल तीन बजे 'आफ्टरनून` में आफिस में आ जाइयेगा। हम लोगों से जो भी गिफ्ट-उफ्ट होगा सो तो करेंगे ही।दीन०- अरे, इसमें कहने की क्या बात है, निश्चित रूप से तीन बजे अपराह्न पहुँच जाउँगा।` फोन आने के बाद से ही दीनदयाल जी पूरे मनायोग से हिन्दी की सेवा में जुट गए। भारतेन्दु जी की पंक्ति का अर्थ आज ही उन्हें ठीक-ठीक समझ में आ रही थी। वे दुहराने लगे, 'निज भाषा उन्नति अहें, सब उन्नति को भूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के शूल....`दीनदयाल जी ने अपने उस पड़ोसी को फोन लगाया। उधर से आवाज आई- कहिए...! क्या, मिल गया न 'इनविटेसन`।दीनदयाल- बस सब आप की ही कृपा है।पड़ोसी - 'कृपा कैसी, मैंने उस मैनेजर से कहा, 'सर....इधर कईबार से तो कागज पर ही हिन्दी का बाँट-बखड़ा होता रहा है। कभी -कभी तो वास्तव में हिन्दी 'डे' मनाना भी चाहिए, ताकि किसी को संदेह न हो। बस फट से मान गए। फिर पड़ोसी जी हल्के ठहाके के साथ बोले,' पोल जो खुल जाती।`दीनदयाल कृतज्ञता से बोले , 'यह सब आप ही की वजह से भाईसाहब..!पड़ोसी - बस अभी देखते जाईए, क्या क्या करवाता हूँ। तो कल तीन बजे साथ ही चलेंगे।`दीनदयाल तीन बजे तैयार बैठे थे। विशेष रूप से इस बात का खयाल उन्हों ने रखा था कि देखते ही कार्यालय के लोगों को हिन्द के पुरोहित पर श्रद्धा उमड़ पड़े। ऐसी छाप छोड़ा जाय कि हर वार्षिक हिन्दी पूजोन्सव में अपनी पुजारीगिरी पक्की हो जाय।अत: गेाल गले का सफेद कुर्ता, धवल धैात धारण कर हाथ में हिन्दी मानक कोष उन्हों ने थाम लिया था।पड़ोंसी गाड़ी लेकर आए । दीनदयाल लपक कर गाड़ी पर सवार हो गए। पत्नी खिड़की से अपने पति के ललाट की चमक को निहारती रह गयीं और गाड़ी सर.....से निकल पड़ी।गाड़ी सीधे पेट्रोल पंप पर जाकर रुकी। पेट्रोल लेने के उपरान्त पड़ोसी दीनदयाल जी की ओर देखने लगे। जब दीनदयाल इसका अर्थ नहीं समझ सके तब पड़ोसी ने खुलकर ही कहा-'भाई दीनदयाल कुछ नहीं समझे, दीनदयाल मँुह ताकते रहे। पड़ोसी मुस्कुराए...अच्छा कोई बात नहीं धीरे-धीरे सब समझ जाइएगा। आज के इस ईंधन हवन की दक्षिणा आप ही को प्रदान करना पड़ेगा। यही परम्परा है।दीनदयाल मन मसेास कर जेब तलाशने लगे। कुल चालीस रुपए निकल सके। पड़ोसी ने सान्त्वना देते हुए कहा, 'कोई बात नहीं, साठ रुपए मैं आपसे लौटते हुए ले लूँगा। आखिर आज का दिन तो आप ही का है। मैनेजर दान-दक्षिणा मेें कोताही नहीं करेगा। जादे कुछ नहीं तो भी पाँच सौ एक का लिफाफा तो पकराएगा ही। कहते हुए पड़ोसी महोदय ने सधे खिलाड़ी की तरह ठहाका लगाया बोले -बोलो जय हिन्दी....।दीनदयाल जी का सुख जैसे दुगूना हो गया, उत्साह में बोल गए 'जय हिन्दी` और श्रद्धा से नत हो गए।पड़ोसी ने टोका- 'बस......बस..... दीनदयाल इतना झुकना ठीक नहीं। यहीं तो आप हिन्दी वाले मात खा जाते हैं। अब ऑफिस में इतना नहीं झुकना, नहीं तो वह मैनेजर चढ़ बैठेगा। बड़ी तरकीब से फॅसाया है उसे।दोनो आफिस पहुँचे। पड़ोसी आगे-आगे मार्गदर्शन कर रहे थे। दीनदयाल जी उनका श्रद्धा पूर्वक अनुशरण कर रहे थे। कार्यालय के द्वार पर हिन्दी पूजनोत्सव का पताका लटक रहा था। दीनदयाल जी श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर आगे बढ़े। पी०ए० साहब ने दोनो को 'वेलकम सर` कहकर बैठक में बिठादिया। दीनदयाल उस भव्य बैठक कक्ष का सूक्ष्मता से मुआयना करने लगे। भीतर- भीतर हिन्दी की शान पर प्रसन्न हुए । मन ही मन बोले, वाह! हिन्दी यहाँ तक पहुँच गयी है।तभी मैनेजर साहब पहुँचे। दोनो उठकर खड़े हो गए । पड़ोसी ने दीनदयाल से मैनेजर का परिचय करवाया-'आप ही हैं मैनेजर साहब। हिन्दी के प्रति बड़ा सम्मान रखते हैं।`मैनेजर गर्व और दानशील भाव से दीनदयाल जी का हाथ पकड़कर झुलाने लगे। पड़ोसी मुस्कुरा रहे थे और दीनदयाल जी दाँत निपोरे सशरीर झूल रहे थे। जब हाथ छूटा तो दीनदयाल जी ने दोनों हाथ जोड़कर मैनेजर साहब को नमस्कार किया। पड़ोसी की ओर देखकर बोले, 'भाई साहब..याने सुरेश भाई, आपकी बहुत तारीफ करते रहते हैं। कहते हैं मैनेजर साहब हिन्दी के बहुत प्रशंसक हैं।मैनेजर- 'हाँ...यस....स्स, आफ्टर ऑल हिन्दी 'नेशनल लैंग्वेज` है न...।`दीनदयाल - हाँ सर जी....भाषा,भषा है।`मैनेजर , 'वही`।पड़ोसी ने दीनदयाल जी को आखों से ईशारा किया। शायद कह रहे थे मैनेजर से परिवाद मत करेा।मैनेजर- तो अब चलें `कान्फ्रेन्स हॉल,` 'फंक्सन` वहीं 'ऑर्गनाइज` किया गया है।हाँ हाँ...दोनो उठकर मैनेजर साहब के पीछे चले।हॉल में सलीके से कुर्सियाँ लगी थी, लोग पहले से ही बैठे थे। सामने टेबल लगा था टेबल के पीछे सलीके से बैनर टंगा था। उसपर सी.सी.आई. बड़े अक्षरों में लिखा था। टेबल के पीछे तीन कुर्सियाँ थी बीचवाले पर मैनेजर स्वयं बैठगए। एक ओर दीनदयाल और दूसरी ओर पड़ोसी।किसी ने उद्घोषणा की, 'अब हमारे चीफ मैजेजर साहब स्वागत भाषण करेंगे।स्वागत भाषण का दौड़ चला,-इस हिन्दी पूजोत्सव के चेयरमैन सर...,हिन्दी पुरोहित दीन....क्या नाम बताया ? पड़ोसी उचक कर बोले 'दीनदयाल, हाँ दीनदयाल जी, एवं हमारे सहयोगी सुरेश बाबू!हिन्दी हम सबों का 'ऑफिसियल` 'लेंग्वेज` है। और इसका सम्मान करना हम सबों की 'ड्यूटी` है। हिन्दी के बारे में हमारे 'अॅाफिस से हर साल 'डेवलपमेन्ट` 'रिपोर्ट` हेड ऑफिस` को जाता है। इस बार हमारे ऑफिस में हिन्दी में 'एक्सलेंट` काम हुआ। हम समझते हैं 'एप्रोक्स` 'सेवेंटी टू सेवेंटी फाइब परसेन्ट` 'लेटर` हम लोगों ने हिन्दी में लिखा है। यह इसबार 'हेड आफिस` के द्वारा 'फिक्स` 'टार्गेट` से भी 'एक्सीड` कर गया। हिन्दी के इसी 'एचीवमेंट` के कारण हमलोग इसबार बड़े 'स्केल` पर हिन्दी का 'फेस्टीवल` 'ऑर्गनाइज` किया है। हम लोग हिंदी का और हिंन्दी लोगों का 'रिस्पेक्ट` करते हैं। हमारा देश तभी आगे बढेग़ा जब हम 'नेशनल लेग्वेज` में अधिक से अधिक 'वर्क` कर सकेंगे। 'सी.सी.आई. इण्डिया` के कुछ ऐसे ऑफिस मंे से है जहाँ हिन्दी के लिए 'सेप्रेट बजट` 'सैंक्सन` किया जाता है। यहाँ हम 'टाइम टू टाइम` हिन्दी में 'ऐसे कम्पिटीसन` एवं 'ट्रांस्लेसन` 'आर्गनाइज` करते हैं एवं `वीनर` को 'प्राइज` दिया जाता है। सबने तालियाँ बजाई। हॉल तालियों से गूँज उठा। थैंक्यू.....सॉरी धन्यवाद कहकर मैनेजर साहब बैठ गए।अब दीनदयाल जी की बारी थी। उन्हों ने हिन्दी पूजन कथा प्रारम्भ किया।' आदरणीय इस सी.सी.आई. यानी करम्सन कॉरपोरेशन ऑफ ईंडिया यानी भारतीय भ्रष्टाचार निगम के प्रधान प्रबंधक महोदय, एवं यहाँ मुझे लाने वाले अग्रज तुल्य भाई सुरेश्वर जी, क्या ही अच्छा हो हम इस संस्थान का नाम हिन्दी में ही लिया करें जैसा मैने अभी लिया।,मैनेजर तिरछी नजड़ से सुरेश्वर जी की ओर देखा। सुरेश्वर जी ने केहुनी से दीनदयाल जी को झटका दिया। दीनदयाल जी चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। फिर उन्हों ने कहा आप लोग हिन्दी के लिए आदर का भाव रखते हैं, यह बड़ी बात है, रखना भी चाहिए। राष्ट्र की एकता अखंडता तभी अक्षुण्ण रह सकेगी। किन्तु अभी-अभी मैजेर साहब ने अपने भाषण में अंग्रेजी में जो कुछ हिन्दी के लिए कहा, क्या हम उसे हिन्दी कह सकते हैंंंं ? हॉल में बैठे लोग एक दूसरे को चकित होकर देखने लगे। पड़ोसी ने दूसरा झटका दिया, इसबार दीनदयाल जी शायद आशय समझगए, उन्हों ने विषय बदल दिया।'हाँ तो मैं कह रहा था हिन्दी में सत्तर प्रतिशत ही क्यों, सौ प्रतिशत पत्र हमें लिखना चाहिए। गुलामी की भाषा हमें सच्ची स्वतंत्रता नहीं दिला सकती।`दर्शक दीर्घा से किसी ने कहा सर ! अंग्रेजी में नोटिंग करते करते ऐसी आदत बन गई है कि थोड़ा मिस्टेक कॉमन है।दीनदयाल जी ने कहा, ' सच कबूलना बड़ी बात है, गलतियों की चिंता किए बगैर प्रयास करते रहिए।हमलोग हिन्दी इम्प्रूव कर लेंगे सर.....।दी०-हिन्दी के प्रति आप में स्नेह है, यह बड़ी बात है, किन्तु इसकी सुरुआत अभी इसी वक्त से प्रारम्भ कीजिए। इम्प्रूव और मिस्टेक नहीं, कहिए भूल सुधार लेंगे।दर्शकों में से कई ने एक साथ कहा सुधार लेंगे। दीन०- मैं आप में अपने राष्ट्र और अपनी भाषा के प्रति सम्मान का भाव देख रहा हूँ, यह अच्छी बात है, किन्तु सुधार की सबसे अधिक जरूरत मैनेजर साहब को है। उन्हों ने.....पड़ोसी ने काम बिगड़ते देख दीनदयाल जी का कुर्ता इतने जोड़ से खींचा कि वे 'जय हिन्दी` कहते हुए तलमला कर कुर्सी पर गिर गए। अब पड़ोसी स्वयं बोलने लगे-अध्यक्ष जी, अभी-अभी दीनदयाल बाबू ने बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कही। असल मंे ये लोग हिन्दी के पुजारी हैं। इसीलिए हिन्दी को हिन्दी की तरह ही बोलने पर जोर देते हैं। इनकी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। आज का युग वैज्ञानिक युग है। अब भाषा में परिवर्तन स्वभाविक है। भाषा को अधिक से अधिक 'वर्ड` एक्सेप्ट करना चाहिए। इससे भाषा 'स्ट्रांग` होती है। अभी आपने कुछ देर पहले जो मैनेजर साहब का भाषण सुना, वह कितना सहज और सरल लगा क्यों कि उसमें 'सिम्पल वर्ड` का उपयोग हुआ है। सभी लोग समझ गए। इससे अधिक भाषा का अर्थ ही क्या है।किसी ने पीछे से कहा सर! 'हमलोग पूरा-पूरा नहीं समझे।`पड़ोसी ने मुँह को माइक के सामने से हटाकर कहा- 'साहब की बात पूरा-पूरा समझना भी नहीं चाहिए। एक हल्के ठहाके के साथ हॉल गूंज उठा।पड़ोसी कहने लगे हॉ तो मैं कह रहा था, जहाँ तक संस्था के नाम का प्रश्न है तो 'करप्सन` शब्द ही क्या बुड़ा है। 'रिस्पेक्टेबल` भी लगता है। दीनदयाल जी द्वारा सुझााया 'भ्रष्टाचार` शब्द से लोगेां मेें बेकार का 'कन्फ्युजन` होता है। हिन्दी में 'करप्सन` जैसे 'वर्ड` अब कॉमन हो गए हंै। ऐसे 'वर्ड` को हिन्दी 'डिक्सनरी` में जेाड़कर शब्द संख्या बढ़ाना चाहिए। इसीसे हिन्दी का 'डेवलपमेंट` होगा।``फिर सबों ने तालियाँ बजाई। तबतक सामने नास्ता का पैकेट आ गया था। पड़ोसी महोदय दीनदयाल जी की ओर नाश्ता का पैकेट बढ़ाते हुए कहा, रिफ्रेशमेन्ट लीजिए और बताइये क्या स्टेंडर का है। नाश्ता करते हुए पड़ोसी दीनदयाल जी के कान में कहने लगे, 'यार! आप तो काम ही बिगाड़ने लगे थे। बड़ी मुश्किल से सम्हालना पड़ा। अरे भाई ! ये अॅफसर लोग हैं, इनमें हिन्दी अंग्रेजी नहीं ढ़ूढ़ा जाता। ऑफिस है, ये लोग साल में एकबार हिन्दी के नाम पर कुछ कर करा देते हैं, कुछ हमारा आपका भला हो जाता है, कुछ नाश्ता पानी कुछ दान-दक्षिणा बस, और क्या चाहिए। हिन्दी की चिन्ता ज्यादे मत किया कीजिए। वह तो अपनी चाल चलती ही रहेगी। अब इस देश में दिल्ली दूर है। केन्द्र सरकार और मंत्री -संत्री के लेवल पर यह सब पॉलसी बनता है। हम आप क्या कर सकते हैं। फिर पड़ोसी समझाते हुए बोले, देखिए मैनेजर साहब को बात लग गयी होगी। केन्द्रीय ऑफिसर लोग बड़ा सेन्सीटिव होते हैं। अब आप ही मामला सम्हालिए। फिर अगले साल का भी तो जोगार भिराना है।दीनदयाल बाबू पड़ोसी की बातों में हिन्दी का वास्तविक भविष्य देख रहे थे। उन्हों ने झट रेशमी बैनर से एक रेशमी धागा झटक कर निकाला, उसे मैनेजर के हाथ में बाधने लगे, और पढ़ने लगे-''जैनबंधो बली राजा ...दानवेन्द्रो महाबल:........रक्षेमाचल माचल:,``मैनेजर सकपका गए, अरे भाई! यह क्या......? यह आप क्या कर रहे हैं, हिन्दी पंडित जी यह तो रक्षा बंधन के दिन हमारे पुरोहित हमें बाँधते हंै।दीनदयाल जी बोले, 'हाँ श्रीमान ! मैं भी तो हिन्दी का पुरोहित हूँ। हिन्दी की रक्षा करने हेतु आपको यह बाँध रहा हूँ। आप जैसे पदाधिकारिओं से ही अब हिन्दी का भला हो सकता है। अब हिन्दी के रक्षा का दायित्व आप के सबल कंधों पर है।मैनेजर के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी। पड़ोसी ने पी.ए. को लिफाफा लेकर आते देख दाँत निपोड़कर कहा, 'लीजिए हिन्दी की दक्षिणा भी हाजिर हो गया सर...। लिफाफा पकड़ते हुए दीनदयाल जी के मन मंे मंत्र गूँजने लगे,'' अस्याम सितम्बर मासे चतुर्दशी तिथौ, सकल हिन्दी मनोरथ सिद्धर्थं अमुक शर्मण: हिन्दी पूजन तत्कथा दक्षिणां ददे।```


1 comment:

Pratik Pandey said...

मिश्र जी, हिन्दी ब्लॉग जगत् में आपका हार्दिक स्वागत् है। उम्मीद है आपके ऐसे ही सुन्दर व्यंग्य निरन्तर पढ़ने को मिलते रहेंगे।

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