Sunday, August 21, 2011

GANDHI TOPI KA PATENT


व्यंग्य
गाँधी टोपी का पेटेन्ट
` डा० कलानाथ मिश्र

फोन की घंटी तीन बार बज के बन्द हो चुकी थी। महारानी चिंतित हो रही थीं। ऐसा तो आज तक नहीं हुआ कि मेरे फोन की घंटी सुनकर महामात्य जबाब नहीं दें। महारानी के मन में अनेक प्रकार की शंकाओं ने घर कर लिया। कही बगावत तो नहीं कर दिया महामात्य ने? फिर स्वत: मन ने कहा, 'न... इतनी हिम्मत तो नहीं उनमंे। इसी उधेर बुन में महारानी पुन: फोन लगाई। क्षण ही भर में
सारी शंकाएं निर्मूल सिद्ध हुई। चौथी बार घंटी बजते ही जबाब मिला, हलो!
कौन प्रधान आमात्य बोल रहे हैं ?
जी.....आप कौन ?
महारानी चिढ़ कर बोली, क्या मुझे नहीं पहचाना ?
आपने सही कहा, आजकल मेरा घ्यान हजारे दल पर टिकी है। वे लोग इतने चीख चिल्ला रहे हैं कि दूसरी आवाज ही नहीं पहचान पाता। किन्तु आप कौन ? इस
आपद् काल में आप की आवाज जानी पहचानी, शुकून देनेवाली लग रही है।
अरे प्रधान आमात्यजी ! मै महारानी बोल रहीं हूँ।
सुनते ही प्रधान आमात्य की चेतना एकाएक लौटी, भाव बदल गए, भाषा बदल गई, किन्तु आवाज ही गायब हो गई। घिघियाते हुए बोले, 'जी मैडम!!! मैडम आप ठीक तो हैं न?
मुझे छोड़िए, आपकी आवाज क्यों बैठी है?
खरास कर गला साफ करते हुए महामात्य ने कहा, 'मैडम जब से आपने मुझे प्रधान आमात्य की कुर्सी पर बिठा दिया है तभी से स्वर यंत्र निश्तेज हो गया है। न बोल पाता हूँ और न चुप रहते बनता है। भई गति साँप छुछुंदर केरि..।
ठीक है कोई बात नहीं, वैसे स्वर यंत्र की आपको बहुत आवश्यकता भी नहीं। उसके लिए हमने दूसरे आमात्य पाल रखे हैं। किन्तु यह बताइए कि श्रवण यंत्र ठीक है कि वह भी ....।
जी मैडम! क्या जी...जी लगाए बैठे हैं प्रधान जी! लगता है आपके कान भी खराब हो गए हैं।
जी नहीं मैडम, आपकी आवाज सुन रहा हूँ।
ठीक से सुनाई परती तेा क्या जनता की चिल्ल.... पों... नहीं सुन पाते? क्या तमाशा बनाए रखा है साम्राज्य में। फिर गाँधी टोपी साम्राज्य की जनता की हथियार बनती जा रही है और आप मुँह ताक रहे हैं। लगता है सारे किए-कराए पर पानी फेर दीजिएगा। दस पन्द्रह दिनों के लिए खास काम से साम्राज्य से बाहर क्या निकली अपनी तरफ हवा बदलने कि जनता ने आसमान सर पे उठा लिया। इन्हीं आशंकाओ के कारण सोची रहीं थी कुछ सामान मातृदेश के महल में भी लेजाकर व्यवस्थित कर दँू पर हजारे की गाँधी टोपी की गूँज यहाँ तक धमक गई। मेरे तो कान पक गए।
ये किस तरह से हैण्डल करते हैं आप सिचुएशन? मुझे तो लगता है आप ही इस फक्कर बुड्ढे को गाँधी बनाने पर तुले हैं। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते हैं। मैडम की आवाज में रोष देखकर प्रधान आमात्य घबरा गए। किसी तरह सफाई दी, बोले, 'मैडम! मैं तो चुप ही था। जो कुछ किया वो तो आपके विश्वास पात्र सिपहसालारों ने ही किया। मैं तो हमेशा की तरह इस बार भी मुँह नही खोला। इसबार भी वही शिक्षा और गृह आमात्य बोले, वित्त आमात्य ने भी विशेषज्ञ टिप्पणी की थी। मैने सोचा आपके वफादार हैं इसी लिए इशारे पर ही बोलते होंगे।
मैडम का गुस्सा बढ गया, खीझ कर बोली, देखिए प्रधान आमात्य! मैं कुछ नही सुनना चाहती, हालात बिगड़ने नहीं चाहिए, नही ंतो सारे किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
मैडम आप निश्चिंत नहें अब राजकुमार राज्य में आ गए हैं अब सब ठीक हो जएगा।
देखिए प्रधान! राजकुमार को भेजा तो है हमने पर अब मामला भड़क गया है। जो भी कहना कहवाना हो वो सब सिपहसालारों के मुँह से ही कहबाइए। राजकुमार स्वयं कुछ न बोलें। उन्हें इस पचड़े में कतई नहीं फसाइए। अभी उन्हें राज पाठ सम्हालना है। वर्षों से सही अवसर के तलाश में हूँ। परन्तु राज्य में चैन से कुछ हो भी तो नहीं रहा। हमेंशा कुछ न कुछ उत्पात मचा ही रहता है। कभी श्वामी, कभी श्यामदेव, कभी पन्ना, जाने कैसे सिर फिरे लोग हैं न खुद चैन से रहते हैं न साम्राज्य को रहने देते हैं। उपर से ये मीडिया वाले तो खुद को किंग मेकर समझ बैठे हैं। उससे भी आश्चर्य होता है निकम्मी जनता पर। जहाँ थोड़ा से अवसर मिला काम धाम छोड़ लग गए पीछे, हल्ला बोल।
मैडम! आप चिंता न करें सब ठीक हो जाएगा।
मैडम बोलती रहीं, इसीलिए मैं राज्य में सतर्क रहती हूँ। राजकुमार को इस बेपरवाह जनता को भरमाकर मोहने, बहलाने के लिए जाने कितने कष्ट दिए हैं। जाने कहाँ-कहाँ राज्य की गंदी बस्तियों में भटके हैं वो। कई बार उन बस्तियों में रात गुजारनी पड़ी, सरे गले खटिए पर बैठना पड़ा। किन्तु जनता इतनी कृतघ्न है कि सामने में चिकनी चुपड़ी बातें तो करती है, राज्य कोष से लाभ भी उठा लेती है पर समय आने पर भागती है इन सिद्धांत बघारने वालों के पीछे।
महाआमात्य बहुत देर बाद मुँह खोले, हाँ में हाँ मिलाई, जी मैडम।
महारानी का क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ था। बोली, क्या जी...जी...लगा रखे हैं प्रधान आमात्य, कुछ कीजिए। जब भी राजकुमार के राज्याभिषेक की बात गरमाती है कुछ न कुछ अपशकुन होने लगता है। इसीलिए मन अशान्त रहता है। किन्तु एक बात बताईए प्रधान अमात्य, आपके मन में तो कोई खोट नहीं?
प्रधान अमात्य की फिर धिघ्घी बंध गई, ये कैसी बातें कहती हैं महारानी जी ! मैं तो आपके कारण अपना अर्थशास्त्र भी भूल गया, मेरी आवाज गुम हो गई, चाह कर भी मुँह नहीं खोल पाता, आखिर आपका नमक खाया है मैडम, आपने मुझे कुर्सी दी है।`
हाँ तो इस कुर्सी को अपनी जागीर नहीं समझ बैठिए। यह मेरे राजकुमार की अमानत है। सही अवसर आते ही उन्हें सौंप कर निश्चिंत होना चाहती हूँ। जमाना खराब हो गया है। क्या मिटेगा भ्रष्टाचार इस साम्राज्य से। वफादारी नाम की चीज ही नहीं रह गयी। जिसे देखिए राजगद्दी पर नजड़ गड़ाए बैठा है। सब कृतघ्न हैं इनमें थोड़ी भी नैतिकता, कृतज्ञता नहीं रही। मेरी पार्टी के ही चलते साम्राज्य में आजादी मिली, मेरे पार्टी के ही बल पर गाँधी गोरों के विरूद्ध आन्दोलन चला सके। बदले में थोड़ा सा भ्रष्टाचार यदि हो भी गया तो इतना हल्ला मचाना कहाँ का न्याय है। हमारे ही अस्त़्र हमीं पर इस्तेमाल? हमारी पार्टी ने ही सबकेा सत्याग्रह का मार्ग बतलाया और कृतघ्न लोग मुझी पर इसका प्रयोग करें यह कहाँ तक उचित है?
जो बन परे कीजिए आमात्य!वह बुड्ढ़ा जो चाहता है उसे दे दीजिए पर किसी भी तरह परिस्थिति पर काबू कीजिए। अपने गुप्तचरों और सिपहसालारों को लगाए रखिए उनके पीछे।
जी मैडम ! जो आज्ञा!
हाँ अब एक अहम बात गौर से सुनिए। मै अनुभव कर रही हूँ कि इन सारे फसाद का जड़ ये गाँधी टोपी है। जाने गाँधी जी ने इस टोपी में कौन सा मंत़्र फूंक दिया था। खुद तो चले गए पर यह टोपी छोड़ गए। साम्राज्य के लोग जहाँ इस टोपी को देखते हैं कि इसके नोक की तरह तन जाते हैं। जाने कहाँ से हिम्मत आ जाती है उनमें, निडर होकर हमारे सैनिकों के आगे खड़े हो जाते हैं।
मेरे मन में एक विचार आ रहा है। आज कल पेटेंट का जमाना है, क्यों न अपनी पार्टी के हक में इस टोपी का पेटेंट करा लिया जाय। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी। और हमारा हक बनता है उसपरं। गाँधी हमारे पार्टी के थे। और ये टोपी उनकी थी, उनके नाम से आज भी जानी जाती है, फिर उसका उपयोग गैर लोग कैसे कर सकते हैं? आप यह भी दलील दे सकते हैं कि टोपी का जैसे-तैसे उपयोग करने से उसका अपमान होता है अत: सार्वजनिक रूप से गाँधी टोपी उपयोग पर तब तक बैन लगा दिया जाय जब तक अपने पक्ष में उसका पेटेन्ट नहीं हो जाता।
महामात्य! राज्य के मेरे वफादार सिपहसालारों से इस विषय में अविलम्ब विमर्श किया जाय। और इस फसाद की जड़ को ही समाप्त करने का प्रयास किया जाय। टोपी को पेटेन्ट कराने का शीघ्र पहल कीजिए और राजकुमार को भी निवेदन कीजिए वेा भी यदा कदा जनता को दिखाने के लिए इस टोपी का उपयोग कर लिया करें।
जी मैडम!
हाँ! एक बात और...। यदि अपने साम्राज्य में इसके पेटेन्ट कराने पर ज्यादे उथल पुथल की सम्भावना हो तेा इसका दूसरा उपाय यह भी है कि अंग्रेज ही क्यों न इस टोपी का पेटेन्ट करा लें। उनका ध्यान शायद अब तक इस ओर नहीं गया है। आखिर गाँधी टोपी पर अंग्रेजों का हम सबसे ज्यादा हक बनता है। इस टोपी के एवज में सबसे बड़ा त्याग तो अंग्रेजों ने ही किया है। इस टोपी के लिए उन्हों ने अपना साम्राज्य भी कुर्बान कर दिया। राज्य छोड़ कर चले गए। दूसरा कि कांग्रेस की स्थापना भी तो उन्हीं के द्वारा की गई थी। गाँधी टोपी पर उनका हक जायज होगा।
जी मैडम!
जो भी हो पर मैं यह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती कि ये भगवा वाले इस टोपी का इस्तेमाल अपने हक में करें। राजकुमार के राज्याभिषेक के पहले इस टोपी का पेटेन्ट करा लिया जाय या करवा दिया जाय। सब दिन के लिए इस फसाद की जड़ को खत्म कीजिए प्रधान आमात्य!
जी मैडम!!

Monday, October 30, 2006

साहित्यकार बनाने की एजेन्सी

साहित्यकार बनाने की एजेन्सी

मित्रों.............
यह एक्कीसवीं शदी की साहित्यिक संस्था है,
साहित्यकार बनाना अपना धंधा है
हम सबका हित चाहते हैं,
अत: रातों-रात साहित्यकार बनाते है।

कविता कहानी लिखते, लिखवाते हैं,
पत्र पत्रिकाओं में छापते-छपवाते हैं।
बोलिए क्या बनना है?
कवि बनना है, कथाकार बनना है?
चाहें तो उप्न्यास्कार भी बन सकते हैं,
आजकल थ्री-इन-वन का जमाना है ।

संगोष्ठियों मे आपको बुलबाऍगे,
उंचा आसन दिलवाऍगे,
आपके प्रतिभा का तिल का तार बनाऍगे।

असली साहित्यकार बड़े सरल होते हैं।
आपको सम्मान देंगे,
अपने साथ पाकर फूले नहीं समाऍगे।

बिना विज्ञापन का विज्ञापन करवा देंगे।
पत्रकारों को आपका नाम रटवा देंगे।
आखिर पत्रकार भी अपना भाइ है।
यह अलग बात है कि उसकी पूछ हाई है।
साहित्यकार को, वे भी अपना मानते हैं।
बिना खाए पीए भी बहुत छापते हैं।
इतने कम खर्चे में
इतना नाम रजनीति में भी नहीं होता।
जो भी आता है, पाता ही पाता है,
कोई भी नहीं खोता।
राजनीति में रिस्क बहुत हाई है।
न कोट है न टाई है।
यहॉ सब कुछ चलेगा,
अंग्रेजी दॉ होंगे, तो भाव और बढ़ेगा।

जीते जी जयन्ती मनवा देंगे।
अभिनन्दन ग्रंथ भी छपवा देंगे।
जिस पार्टी में जाना हो,
उस नेता से लोकार्पण करवा देंगे।

लिखने वाले लिखते रह जाऍगे।
आपके लिए मंच लुटवा देंगे।
दो-चार पुरस्कार भी दिलवा देंगे।
मंत्रियों-संत्रियों से मिलवा देंगे।
राजनीति में जाने का अच्छा बहाना है।
राजनैतिक पद के लिए भी,
साहित्य में नाम कमाना है।
हिन्दी वाले हाथ मलते रह जाऍगे,
आप आगे निकल जाऍगे।

कुछ साहित्यकार खिसका किस्म का होता है।
रात-रात भर लिखता है,
जागता है, न सोता है।
लिख-लिख कर ढ़ोता है।
छपवाने को रोता है।
इनसे परहेज रखिए।
जो कहते हैं वही करिए,
वर्ना खुद तो बर्बाद है ही,
आपको भी बर्बाद करवाएगा।
जिन्दगी भर झोला ढ़ोता है,
आपसे भी ढ़ुलवाएगा।

हमलोग इनका उपयोग करते हैं।
संगोठियों में बुलवाते हैं,
अपने आयोजनों को विश्वसनीय बनाते हैं।
इनके आने से आयोजनों में रंग आता है।
नकली में असली का सुगन्ध आता है।
हम इनके भाषण से पंक्ति चुराते हैं,
आपके नाम छपवाते हैं।

बहुत हो चुका,
जो करना है जल्दी कीजिए,
समय नहीं बर्बाद कीजिए।
मंच खाली है, आबाद कीजिए।
पदाधिकारियों की कमी नहीं है।
रिटायरमेंन्ट के बाद,
इतना मान और कहीं नहीं है।
मोल भाव का वक्त नहीं है,
जो कह दिया वही सही है।
अब सब आपके उत्साह पर निर्भर करता है।
अपना क्या बिगरता है।
मेरा तो नाम चलता है,
पाकेट में संस्था है,
आप नहीं और सही,
और नहीं और सही ।।

Monday, October 16, 2006

अथ हिन्दी पूजन कथा

दीनदयाल आज अत्यंत प्रसन्न थे। कुछ दिन पूर्व जो जुगाड़ उन्होंने भिड़ाया था, वह सफल हुआ। दीनदयाल के पड़ोसी सुरेश्वर बाबू किसी केन्द्रीय सरकारी संस्था के रिटायर्ड पदाधिकारी थे। दीनदयाल की 'हिन्दी-ऑफीसर` सेवा भाव से संतुष्ट होकर सुरेश्वर बाबू ने तिकड़म भिड़ाया और हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी आयोजित होने वाली वार्षिक हिन्दी पूजनोत्सव के लिए एक विशेष सरकारी संस्था में दीनदयाल जी को मुख्य पुजारी की भूमिका मिल गयी।कल ही संध्याकाल फोन आया। फोन दीनदयाल जी की पत्नी उठाली। पत्नी ने दौड़कर दीनदयाल जी को सूचना दी, ' अजी सुनते हैं...., दीनदयाल जी मानस पाठ कर रहे थे अत: शीघ्र ही पत्नी के टोकने का उत्तर नहीं दे सके। पत्नी इसबार बिना किसी भूमिका के ही बोली - 'कॉरपोरेशन से फोन है...।दीनदयाल जी आनन फानन में मानस पाठ का पटाक्षेप कर भागते हुए फोन के पास आए। पहले धीरे से पत्नी को फटकार लगाई 'अरे श्रीमती ! कॉरपोरेशन नहीं निगम बोला करो 'निगम`, क्या समझेंगे लोग हिन्दी वाले के घर में भी......,पत्नी ने बीच में ही बात काटकर कहा, 'अच्छा समझी किन्तु उन्हों ने जो कहा सो कह दी मैंने।दीनदयाल-वे लोग पदाधिकारी हैं ऐसे ही बोलते हैं, पर तुमतो...,पत्नी ने फिर टोका- 'अच्छा पहले फोन पर बात तो कर लो।दीनदयाल जी ने पूरी शालीनता समेटकर हिन्दीआना अंदाज में कहा, 'हेलो.......ओ.....!आवाज आयी, 'जी ! मैं भारत सरकार के करप्सन कॉरपोरेशन से मेनेजर बोल रहा हूँ।`दीनदयाल जी को एक क्षण के लिए लगा जैसे कोई कह रहा हो 'नमस्कार ...मैं 'क०ब०क०`(के.बी.सी.) से अमिताभ बच्चन बोल रहा हूँ.....।दीनदयाल जी ने भी उसी उत्साह से उत्तर दिया ,'जी हाँ सर...श्रीमान जी बोलिए.....,बोल ही दीजिए...।मैनेजर - आप तो जानते ही हैं कि हमलोगेां के यहाँ आज कल हिन्दी 'फेस्टीवल` चल रहा है।दीनदयाल बीच में ही बोल पड़े, 'हाँ....हाँ ..बड़ी कृपा आपलोगों की जो हिन्दी के लिए इतना करते हैं।`पदा०- न...न...इसमें कृपा करने की क्या बात है, यह तो 'गवर्नमेन्ट` का 'सर्कुलर` है सेा यह तो करना ही है।दीन०-जी हाँ यह तो बहुत ही अच्छी बात है।पदा०- तो 'प्लीज` आपसे 'रिक्वेस्ट` है कि कल तीन बजे 'आफ्टरनून` में आफिस में आ जाइयेगा। हम लोगों से जो भी गिफ्ट-उफ्ट होगा सो तो करेंगे ही।दीन०- अरे, इसमें कहने की क्या बात है, निश्चित रूप से तीन बजे अपराह्न पहुँच जाउँगा।` फोन आने के बाद से ही दीनदयाल जी पूरे मनायोग से हिन्दी की सेवा में जुट गए। भारतेन्दु जी की पंक्ति का अर्थ आज ही उन्हें ठीक-ठीक समझ में आ रही थी। वे दुहराने लगे, 'निज भाषा उन्नति अहें, सब उन्नति को भूल, बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय के शूल....`दीनदयाल जी ने अपने उस पड़ोसी को फोन लगाया। उधर से आवाज आई- कहिए...! क्या, मिल गया न 'इनविटेसन`।दीनदयाल- बस सब आप की ही कृपा है।पड़ोसी - 'कृपा कैसी, मैंने उस मैनेजर से कहा, 'सर....इधर कईबार से तो कागज पर ही हिन्दी का बाँट-बखड़ा होता रहा है। कभी -कभी तो वास्तव में हिन्दी 'डे' मनाना भी चाहिए, ताकि किसी को संदेह न हो। बस फट से मान गए। फिर पड़ोसी जी हल्के ठहाके के साथ बोले,' पोल जो खुल जाती।`दीनदयाल कृतज्ञता से बोले , 'यह सब आप ही की वजह से भाईसाहब..!पड़ोसी - बस अभी देखते जाईए, क्या क्या करवाता हूँ। तो कल तीन बजे साथ ही चलेंगे।`दीनदयाल तीन बजे तैयार बैठे थे। विशेष रूप से इस बात का खयाल उन्हों ने रखा था कि देखते ही कार्यालय के लोगों को हिन्द के पुरोहित पर श्रद्धा उमड़ पड़े। ऐसी छाप छोड़ा जाय कि हर वार्षिक हिन्दी पूजोन्सव में अपनी पुजारीगिरी पक्की हो जाय।अत: गेाल गले का सफेद कुर्ता, धवल धैात धारण कर हाथ में हिन्दी मानक कोष उन्हों ने थाम लिया था।पड़ोंसी गाड़ी लेकर आए । दीनदयाल लपक कर गाड़ी पर सवार हो गए। पत्नी खिड़की से अपने पति के ललाट की चमक को निहारती रह गयीं और गाड़ी सर.....से निकल पड़ी।गाड़ी सीधे पेट्रोल पंप पर जाकर रुकी। पेट्रोल लेने के उपरान्त पड़ोसी दीनदयाल जी की ओर देखने लगे। जब दीनदयाल इसका अर्थ नहीं समझ सके तब पड़ोसी ने खुलकर ही कहा-'भाई दीनदयाल कुछ नहीं समझे, दीनदयाल मँुह ताकते रहे। पड़ोसी मुस्कुराए...अच्छा कोई बात नहीं धीरे-धीरे सब समझ जाइएगा। आज के इस ईंधन हवन की दक्षिणा आप ही को प्रदान करना पड़ेगा। यही परम्परा है।दीनदयाल मन मसेास कर जेब तलाशने लगे। कुल चालीस रुपए निकल सके। पड़ोसी ने सान्त्वना देते हुए कहा, 'कोई बात नहीं, साठ रुपए मैं आपसे लौटते हुए ले लूँगा। आखिर आज का दिन तो आप ही का है। मैनेजर दान-दक्षिणा मेें कोताही नहीं करेगा। जादे कुछ नहीं तो भी पाँच सौ एक का लिफाफा तो पकराएगा ही। कहते हुए पड़ोसी महोदय ने सधे खिलाड़ी की तरह ठहाका लगाया बोले -बोलो जय हिन्दी....।दीनदयाल जी का सुख जैसे दुगूना हो गया, उत्साह में बोल गए 'जय हिन्दी` और श्रद्धा से नत हो गए।पड़ोसी ने टोका- 'बस......बस..... दीनदयाल इतना झुकना ठीक नहीं। यहीं तो आप हिन्दी वाले मात खा जाते हैं। अब ऑफिस में इतना नहीं झुकना, नहीं तो वह मैनेजर चढ़ बैठेगा। बड़ी तरकीब से फॅसाया है उसे।दोनो आफिस पहुँचे। पड़ोसी आगे-आगे मार्गदर्शन कर रहे थे। दीनदयाल जी उनका श्रद्धा पूर्वक अनुशरण कर रहे थे। कार्यालय के द्वार पर हिन्दी पूजनोत्सव का पताका लटक रहा था। दीनदयाल जी श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर आगे बढ़े। पी०ए० साहब ने दोनो को 'वेलकम सर` कहकर बैठक में बिठादिया। दीनदयाल उस भव्य बैठक कक्ष का सूक्ष्मता से मुआयना करने लगे। भीतर- भीतर हिन्दी की शान पर प्रसन्न हुए । मन ही मन बोले, वाह! हिन्दी यहाँ तक पहुँच गयी है।तभी मैनेजर साहब पहुँचे। दोनो उठकर खड़े हो गए । पड़ोसी ने दीनदयाल से मैनेजर का परिचय करवाया-'आप ही हैं मैनेजर साहब। हिन्दी के प्रति बड़ा सम्मान रखते हैं।`मैनेजर गर्व और दानशील भाव से दीनदयाल जी का हाथ पकड़कर झुलाने लगे। पड़ोसी मुस्कुरा रहे थे और दीनदयाल जी दाँत निपोरे सशरीर झूल रहे थे। जब हाथ छूटा तो दीनदयाल जी ने दोनों हाथ जोड़कर मैनेजर साहब को नमस्कार किया। पड़ोसी की ओर देखकर बोले, 'भाई साहब..याने सुरेश भाई, आपकी बहुत तारीफ करते रहते हैं। कहते हैं मैनेजर साहब हिन्दी के बहुत प्रशंसक हैं।मैनेजर- 'हाँ...यस....स्स, आफ्टर ऑल हिन्दी 'नेशनल लैंग्वेज` है न...।`दीनदयाल - हाँ सर जी....भाषा,भषा है।`मैनेजर , 'वही`।पड़ोसी ने दीनदयाल जी को आखों से ईशारा किया। शायद कह रहे थे मैनेजर से परिवाद मत करेा।मैनेजर- तो अब चलें `कान्फ्रेन्स हॉल,` 'फंक्सन` वहीं 'ऑर्गनाइज` किया गया है।हाँ हाँ...दोनो उठकर मैनेजर साहब के पीछे चले।हॉल में सलीके से कुर्सियाँ लगी थी, लोग पहले से ही बैठे थे। सामने टेबल लगा था टेबल के पीछे सलीके से बैनर टंगा था। उसपर सी.सी.आई. बड़े अक्षरों में लिखा था। टेबल के पीछे तीन कुर्सियाँ थी बीचवाले पर मैनेजर स्वयं बैठगए। एक ओर दीनदयाल और दूसरी ओर पड़ोसी।किसी ने उद्घोषणा की, 'अब हमारे चीफ मैजेजर साहब स्वागत भाषण करेंगे।स्वागत भाषण का दौड़ चला,-इस हिन्दी पूजोत्सव के चेयरमैन सर...,हिन्दी पुरोहित दीन....क्या नाम बताया ? पड़ोसी उचक कर बोले 'दीनदयाल, हाँ दीनदयाल जी, एवं हमारे सहयोगी सुरेश बाबू!हिन्दी हम सबों का 'ऑफिसियल` 'लेंग्वेज` है। और इसका सम्मान करना हम सबों की 'ड्यूटी` है। हिन्दी के बारे में हमारे 'अॅाफिस से हर साल 'डेवलपमेन्ट` 'रिपोर्ट` हेड ऑफिस` को जाता है। इस बार हमारे ऑफिस में हिन्दी में 'एक्सलेंट` काम हुआ। हम समझते हैं 'एप्रोक्स` 'सेवेंटी टू सेवेंटी फाइब परसेन्ट` 'लेटर` हम लोगों ने हिन्दी में लिखा है। यह इसबार 'हेड आफिस` के द्वारा 'फिक्स` 'टार्गेट` से भी 'एक्सीड` कर गया। हिन्दी के इसी 'एचीवमेंट` के कारण हमलोग इसबार बड़े 'स्केल` पर हिन्दी का 'फेस्टीवल` 'ऑर्गनाइज` किया है। हम लोग हिंदी का और हिंन्दी लोगों का 'रिस्पेक्ट` करते हैं। हमारा देश तभी आगे बढेग़ा जब हम 'नेशनल लेग्वेज` में अधिक से अधिक 'वर्क` कर सकेंगे। 'सी.सी.आई. इण्डिया` के कुछ ऐसे ऑफिस मंे से है जहाँ हिन्दी के लिए 'सेप्रेट बजट` 'सैंक्सन` किया जाता है। यहाँ हम 'टाइम टू टाइम` हिन्दी में 'ऐसे कम्पिटीसन` एवं 'ट्रांस्लेसन` 'आर्गनाइज` करते हैं एवं `वीनर` को 'प्राइज` दिया जाता है। सबने तालियाँ बजाई। हॉल तालियों से गूँज उठा। थैंक्यू.....सॉरी धन्यवाद कहकर मैनेजर साहब बैठ गए।अब दीनदयाल जी की बारी थी। उन्हों ने हिन्दी पूजन कथा प्रारम्भ किया।' आदरणीय इस सी.सी.आई. यानी करम्सन कॉरपोरेशन ऑफ ईंडिया यानी भारतीय भ्रष्टाचार निगम के प्रधान प्रबंधक महोदय, एवं यहाँ मुझे लाने वाले अग्रज तुल्य भाई सुरेश्वर जी, क्या ही अच्छा हो हम इस संस्थान का नाम हिन्दी में ही लिया करें जैसा मैने अभी लिया।,मैनेजर तिरछी नजड़ से सुरेश्वर जी की ओर देखा। सुरेश्वर जी ने केहुनी से दीनदयाल जी को झटका दिया। दीनदयाल जी चौंक कर इधर-उधर देखने लगे। फिर उन्हों ने कहा आप लोग हिन्दी के लिए आदर का भाव रखते हैं, यह बड़ी बात है, रखना भी चाहिए। राष्ट्र की एकता अखंडता तभी अक्षुण्ण रह सकेगी। किन्तु अभी-अभी मैजेर साहब ने अपने भाषण में अंग्रेजी में जो कुछ हिन्दी के लिए कहा, क्या हम उसे हिन्दी कह सकते हैंंंं ? हॉल में बैठे लोग एक दूसरे को चकित होकर देखने लगे। पड़ोसी ने दूसरा झटका दिया, इसबार दीनदयाल जी शायद आशय समझगए, उन्हों ने विषय बदल दिया।'हाँ तो मैं कह रहा था हिन्दी में सत्तर प्रतिशत ही क्यों, सौ प्रतिशत पत्र हमें लिखना चाहिए। गुलामी की भाषा हमें सच्ची स्वतंत्रता नहीं दिला सकती।`दर्शक दीर्घा से किसी ने कहा सर ! अंग्रेजी में नोटिंग करते करते ऐसी आदत बन गई है कि थोड़ा मिस्टेक कॉमन है।दीनदयाल जी ने कहा, ' सच कबूलना बड़ी बात है, गलतियों की चिंता किए बगैर प्रयास करते रहिए।हमलोग हिन्दी इम्प्रूव कर लेंगे सर.....।दी०-हिन्दी के प्रति आप में स्नेह है, यह बड़ी बात है, किन्तु इसकी सुरुआत अभी इसी वक्त से प्रारम्भ कीजिए। इम्प्रूव और मिस्टेक नहीं, कहिए भूल सुधार लेंगे।दर्शकों में से कई ने एक साथ कहा सुधार लेंगे। दीन०- मैं आप में अपने राष्ट्र और अपनी भाषा के प्रति सम्मान का भाव देख रहा हूँ, यह अच्छी बात है, किन्तु सुधार की सबसे अधिक जरूरत मैनेजर साहब को है। उन्हों ने.....पड़ोसी ने काम बिगड़ते देख दीनदयाल जी का कुर्ता इतने जोड़ से खींचा कि वे 'जय हिन्दी` कहते हुए तलमला कर कुर्सी पर गिर गए। अब पड़ोसी स्वयं बोलने लगे-अध्यक्ष जी, अभी-अभी दीनदयाल बाबू ने बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कही। असल मंे ये लोग हिन्दी के पुजारी हैं। इसीलिए हिन्दी को हिन्दी की तरह ही बोलने पर जोर देते हैं। इनकी बातों को अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिए। आज का युग वैज्ञानिक युग है। अब भाषा में परिवर्तन स्वभाविक है। भाषा को अधिक से अधिक 'वर्ड` एक्सेप्ट करना चाहिए। इससे भाषा 'स्ट्रांग` होती है। अभी आपने कुछ देर पहले जो मैनेजर साहब का भाषण सुना, वह कितना सहज और सरल लगा क्यों कि उसमें 'सिम्पल वर्ड` का उपयोग हुआ है। सभी लोग समझ गए। इससे अधिक भाषा का अर्थ ही क्या है।किसी ने पीछे से कहा सर! 'हमलोग पूरा-पूरा नहीं समझे।`पड़ोसी ने मुँह को माइक के सामने से हटाकर कहा- 'साहब की बात पूरा-पूरा समझना भी नहीं चाहिए। एक हल्के ठहाके के साथ हॉल गूंज उठा।पड़ोसी कहने लगे हॉ तो मैं कह रहा था, जहाँ तक संस्था के नाम का प्रश्न है तो 'करप्सन` शब्द ही क्या बुड़ा है। 'रिस्पेक्टेबल` भी लगता है। दीनदयाल जी द्वारा सुझााया 'भ्रष्टाचार` शब्द से लोगेां मेें बेकार का 'कन्फ्युजन` होता है। हिन्दी में 'करप्सन` जैसे 'वर्ड` अब कॉमन हो गए हंै। ऐसे 'वर्ड` को हिन्दी 'डिक्सनरी` में जेाड़कर शब्द संख्या बढ़ाना चाहिए। इसीसे हिन्दी का 'डेवलपमेंट` होगा।``फिर सबों ने तालियाँ बजाई। तबतक सामने नास्ता का पैकेट आ गया था। पड़ोसी महोदय दीनदयाल जी की ओर नाश्ता का पैकेट बढ़ाते हुए कहा, रिफ्रेशमेन्ट लीजिए और बताइये क्या स्टेंडर का है। नाश्ता करते हुए पड़ोसी दीनदयाल जी के कान में कहने लगे, 'यार! आप तो काम ही बिगाड़ने लगे थे। बड़ी मुश्किल से सम्हालना पड़ा। अरे भाई ! ये अॅफसर लोग हैं, इनमें हिन्दी अंग्रेजी नहीं ढ़ूढ़ा जाता। ऑफिस है, ये लोग साल में एकबार हिन्दी के नाम पर कुछ कर करा देते हैं, कुछ हमारा आपका भला हो जाता है, कुछ नाश्ता पानी कुछ दान-दक्षिणा बस, और क्या चाहिए। हिन्दी की चिन्ता ज्यादे मत किया कीजिए। वह तो अपनी चाल चलती ही रहेगी। अब इस देश में दिल्ली दूर है। केन्द्र सरकार और मंत्री -संत्री के लेवल पर यह सब पॉलसी बनता है। हम आप क्या कर सकते हैं। फिर पड़ोसी समझाते हुए बोले, देखिए मैनेजर साहब को बात लग गयी होगी। केन्द्रीय ऑफिसर लोग बड़ा सेन्सीटिव होते हैं। अब आप ही मामला सम्हालिए। फिर अगले साल का भी तो जोगार भिराना है।दीनदयाल बाबू पड़ोसी की बातों में हिन्दी का वास्तविक भविष्य देख रहे थे। उन्हों ने झट रेशमी बैनर से एक रेशमी धागा झटक कर निकाला, उसे मैनेजर के हाथ में बाधने लगे, और पढ़ने लगे-''जैनबंधो बली राजा ...दानवेन्द्रो महाबल:........रक्षेमाचल माचल:,``मैनेजर सकपका गए, अरे भाई! यह क्या......? यह आप क्या कर रहे हैं, हिन्दी पंडित जी यह तो रक्षा बंधन के दिन हमारे पुरोहित हमें बाँधते हंै।दीनदयाल जी बोले, 'हाँ श्रीमान ! मैं भी तो हिन्दी का पुरोहित हूँ। हिन्दी की रक्षा करने हेतु आपको यह बाँध रहा हूँ। आप जैसे पदाधिकारिओं से ही अब हिन्दी का भला हो सकता है। अब हिन्दी के रक्षा का दायित्व आप के सबल कंधों पर है।मैनेजर के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी। पड़ोसी ने पी.ए. को लिफाफा लेकर आते देख दाँत निपोड़कर कहा, 'लीजिए हिन्दी की दक्षिणा भी हाजिर हो गया सर...। लिफाफा पकड़ते हुए दीनदयाल जी के मन मंे मंत्र गूँजने लगे,'' अस्याम सितम्बर मासे चतुर्दशी तिथौ, सकल हिन्दी मनोरथ सिद्धर्थं अमुक शर्मण: हिन्दी पूजन तत्कथा दक्षिणां ददे।```